धर्म एक सामाजिक जकड़न

धर्म एक सामाजिक जकड़न 

जब एक बच्चा अपनी माँ के पेट से बाहर इस संसार में आता है तो उसे न तो किसी धर्म के बारे में कुछ पता होता है और न ही वो धर्म के बारे में कुछ जानने की कोशिश करता है जैसे जैसे वह बड़ा होता है उसकी बुद्धि और सोचने समझने की शक्ति विकसित होती है और जैसे अपने आस पास के माहौल में अपने परिवार अपने समाज में जो कुछ देखता और सीखता उसके प्रति उसका लगाव बढ़ता जाता है  और कही न कही वह खुद को भावनात्मक रूप से खुद को अपने धर्म के रीती रिवाजों परपराओं आदि से खुद को जोड़ लेता है जिसका अहसास उसे खुद भी कभी महसूस नहीं होता इन सबके बीच उसे सांसारिक चिंताओं में सूबा हुआ रहता है और उसे अपने धर्म के बाहर की वास्तविकता को पहचानने की आवश्यकता महसूस नहीं होती और अगर कोई उसे उसके धर्म से अलग कुछ भी देखने या सुनने को मिले तो वह उसे स्वीकार नहीं कर पाता क्योकि इससे उसे अपने धार्मिक भावनाओ से अलग होने का खतरा महसूस होता है और इस तरह से वह अपने परिवार समाज के बनाए रीती रिवाजों परम्पराओ को मानकर अपनी पूरी ज़िन्दगी बिता देता है जिस तरह से एक कुआँ का मेढक कुए को अपनी दुनिया समझकर उस कुए में अपनी सारी ज़िंदगी बिता देता है. 


धार्मिक अंधापन 

आज हर इंसान अपने धर्म को ऊँचा दिखाने या ऊँचा बताने की कोशिश करता है लकिन किसी को भी अपने धर्म में कोई बुराई नज़र नहीं आती है सबको अपना धर्म सर्वोच्च संपन्न लगता है.
इस बात को एक उदाहरण से समझ सकते है एक बार पांच अन्धो को एक हाथी को स्पर्श के द्वारा व्याख्या करने को कहा गया पांचो अन्धो ने हाथी को स्पर्श किया और अपनी अपनी राय दी पहले ने हाथी की पूछ को स्पर्श करके उसे रस्सी बताया दूसरे ने हाथी के पैर को स्पर्श करके उसे खम्भा बताया तीसरे ने हाथी के पेट को स्पर्श करके उसे दीवार बताया चौथे ने हाथी के सूँड को स्पर्श किया और उसे एक लकड़ी बताया और पांचवे ने हाथी के कान को स्पर्श करके उसे सूप बताया सबने अपनी अपनी राय अपने अपने सोच के मुताबिक दी और पांचो अंधे अपनी अपनी नज़रो में सही थे परन्तु एक ऐसा इंसान जो देख सकता है उसकी नज़र में पांचो अंधे गलत है क्योंकि हाथी न तो रस्सी है न खम्भा न दिवार न लकड़ी और न ही सूप, ठीक उसी तरह आज जितने भी धर्म इस दुनिया में मौजूद है सब अपने अपने धर्म को ऊँचा और सच्चा बताने में लगे हुए है लकिन सच्चा कोई भी नहीं है अगर सचाई को जानना है तो धार्मिक अंधापन को दूर करना होगा अपनी छोटी मानसिकता से ऊपर उठना होगा क्योकि एक धर्म का अँधा इंसान कभी भी सचाई को नहीं जान पाएगा

धार्मिक अंधापन की एक सामाजिक बुराई 

आज हर धर्म के लोग अपने अपने धर्म के रीती रिवाजों के प्रति बहुत  श्रद्धा और आस्था रखते है कई धार्मिक क्रिया करते है लकिन इंसान के इन बाहरी तौर से कििये क्रियाकलापों से मनुष्य को एक झूठी तस्सली के सिवा कुछ हासिल नहीं होता , इन धार्मिक क्रियाकलापों को करने वाला मनुष्य खुद को धार्मिक समझने लगता है लकिन भीतरी तौर पर वह धर्म से अनजान ही रहता है उदारहण के तौर पर आज हर इंसान किसी न किसी धर्म से जुड़ा है और हर कोई अपने अपने धर्म के अनुसार धार्मिक क्रियाकलापों को पूरी श्रद्धा के साथ करता है तो फिर क्या समाज में जितने भी लोग पाप करते है क्या वे धार्मिक क्रियाकलाप नहीं करते? ऐसा बिल्कुल नहीं है वास्तविकता तो ये है की धार्मिक क्रियाकलाप एक इंसान को बाहरी तौर पर एक अच्छा इंसान होने की झूठी सांत्वना देता है जिसके कारण इंसान अपने भीतरी वैयक्तित्व को सुधारने की जरुरत महसूस नहीं कर पाता  और पूरी जिंदगी धर्म के अंधेपन में बिता देता है. 






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